स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे सुभाष चन्द्र बोस : प्रभात डंडरियाल

एस.के.एम. न्यूज़ सर्विस
देहरादून 23 जनवरी। नेताजी संघर्ष समिति के तत्वाधान में हर साल कि भांति आज भी आज़ादी के अग्रदूत महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की 126 वी जयंती मनाई गई। नेताजी संघर्ष समिति से जुड़े कार्यकर्ता आज सुबह नेताजी चौक बेंड बाजार में एकत्रित हुए जहां उन्होंने नेताजी की मूर्ति पर माल्यार्पण कर श्रद्धांजलि अर्पित की। इस अवसर पर समिति के उपाध्यक्ष प्रभात डंडरियाल ने अपने विचार व्यक्त करते हुये कहा की सुभाष चन्द्र बोस भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फ़ौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा” का नारा भी उनका था जो उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया। नेता जी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए “दिल्ली चलो!” का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया।
इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुये प्रमुख महासचिव आरिफ़ वारसी ने कहा की नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में हिन्दू कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा। नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा। आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् १९४६ के नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा। आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो। जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे। स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।
इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुये नेताजी संघर्ष समिति के प्रवक्ता अरुण खरबंदा ने कहा कि देश की आज़ादी में नेताजी का बहुत बड़ा योगदान रहा, अगर वह न होते तो आज़ादी मिलना और मुश्किल होता उनका खोफ अंग्रेजों को यहां से भगा ले गया। देशवासी सदैव जनके ऋणी रहेगें। इस अवसर पर समिति के उपाध्यक्ष प्रभात डंडरियाल, प्रमुख महासचिव आरिफ़ वारसी, प्रवक्ता अरुण खरबंदा, मनोज सिंघल, तरुण अग्रवाल, प्रवीण शर्मा, इस्राईल मालिक, इरशाद खान, सुनील, अनुज भाटिया, सहित अनेको लोग उपस्थित रहे।